बाहुबलियों की राजनीति हुई खत्म, लोकसभा चुनाव-2024 में नहीं दिखाई दे रहे हैं, बाहुबली
लखनऊ। उत्तर प्रदेश की सियासी जमीन ने देश को नौ प्रधानमंत्री दिए। यूपी की माटी ने एक से बढ़कर एक नेता गढ़े। इन नेताओं ने प्रदेश ही नहीं बल्कि देश की सियासत को भी नई दृष्टि दी। यह सियासी जमीन बाहुबलियों को भी खूब पसंद आई। बाहुबलियों हनक,धमक ने सियासतदानों की आंखों में ऐसी चमक पैदा की कि बाहुबली नेतागिरी चमकाने का औजार बन गए। सारे समीकरणों को ध्वस्त करने का हथियार बन गए, लेकिन समय का पहिया कुछ ऐसा घूमा कि बाहुबलियों की न तो वो धमक रही और न ही वो हनक रही।
इस लोकसभा चुनाव में पहली बार ऐसा देखने को मिल रहा है कि बाहुबलियों का जोर नहीं दिख रहा है। सभी प्रमुख दलों ने किनारा कर लिया है। परिवार को भी टिकट मिलना मुश्किल हो रहा है। पुलिस और अदालत की सख्ती की वजह से सियासत में बाहुबलियों का दखल खत्म हो गया है। बाहुबली अपनी पतीली चुनावी चूल्हे पर चढ़ाने से भी कतरा रहे हैं। यूपी की सियासत में बाहुबली कैसे नहीं रहे बली आइए जानें।
पंडित जवाहरलाल नेहरू हों या फिर लाल बहादुर शास्त्री, इंदिरा गांधी, चौधरी चरण सिंह, राजीव गांधी, विश्वनाथ प्रताप सिंह, चंद्रशेखर, अटल बिहारी वाजपेयी हों या फिर मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी। इन सभी ने दिल्ली के सिंघासन का रास्ता उत्तर प्रदेश ने ही तय किया। यही कारण है कि सत्ता के गलियारों में कहा जाने लगा कि दिल्ली के सिंघासन का रास्ता यूपी से होकर गुजरता है, लेकिन यूपी ने एक दौर ऐसा भी देखा जब बाहुबली सियासत की अलग भाषा और परिभाषा लिखने लगे।
बीते तीन दशकों की यूपी की सियासत पर नजर डाली जाए तो तमाम बाहुबली अपने दम पर सत्ता दिलाने और खुद भी माननीय बनने की होड़ में आगे रहे। पश्चिम यूपी में डीपी यादव से लेकर पूर्वांचल में माफिया मुख्तार अंसारी के कुनबे ने सभी प्रमुख दलों में अपनी पैठ बनाई, लेकिन 2017 के बाद एक बड़ा बदलाव आया। जेल में रहकर भी सियासी उलटफेर करने का दम रखने वाले तमाम माफिया इस बार हाशिए पर हैं।
पुलिस और अदालत की सख्ती ने बाहुबलियों के चुनाव लड़ने के मंसूबे को नेस्तनाबूद कर दिया है। माफिया मुख्तार अंसारी, बाहुबली विजय मिश्रा, बाहुबली धनंजय सिंह, बाहुबली रिजवान जहीर, बाहुबली अमरमणि त्रिपाठी, विनय शंकर तिवारी, हाजी याकूब कुरैशी, संजीव द्विवेदी उर्फ रामू द्विवेदी, राजन तिवारी, बृजेश सिंह जैसे तमाम बाहुबली नेता कानून के शिकंजे में कुछ इस कदर फंस चुके हैं कि इनका चुनाव लड़ पाना या लड़वा आसान नहीं है। इनमें से कुछ सजा होने से चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य हो चुके हैं, तो कई पर सजा की तलवार लटक रही है।
माफिया मुख्तार अंसारी के भाई अफजाल अंसारी ही अपने कुनबे की सियासी पहचान को बचाए रखने की जद्दोजहद में जुटे हैं। अंसारी परिवार के तीन सदस्य वर्तमान में निर्वाचित जनप्रतिनिधि हैं। इनमें अफजाल अंसारी गाजीपुर से बसपा सांसद हैं। अफजाल अंसारी इस बार सपा के टिकट पर चुनाव लड़ने जा रहे हैं। मुख्तार का बेटा अब्बास मऊ सदर से सुभासपा विधायक है। मुख्तार के भाई सिगबतुल्लाह का बेटा शोएब अंसारी मन्नू गाजीपुर की मोहम्मदाबाद सीट से सपा विधायक है।
बदले माहौल में बाहुबली छोटे दलों से आस लगाए बैठे हैं। मऊ से सांसद अतुल राय टिकट पाने के लिए किसी भी दल का झंडा उठाने को तैयार हैं। सुल्तानपुर से चंद्रभद्र सिंह उर्फ मोनू बसपा पर टकटकी लगाए हुए हैं। पूर्व सांसद धनंजय सिंह को अपहरण के मामले में सात साल की सजा होने के बाद उनकी पत्नी श्रीकला के चुनाव मैदान में उतरने के कयास लग रहे हैं, लेकिन किसी भी प्रमुख दल से उनकी अब तक बात नहीं बन सकी है।
पिछले लोकसभा चुनाव में सुल्तानपुर में भाजपा प्रत्याशी मेनका गांधी के खिलाफ बसपा के टिकट पर चुनाव लड़ने वाले चंद्रभद्र सिंह उर्फ मोनू को भी दो साल की सजा होने के कारण उनका आगे का सियासी सफर खतरे में पड़ चुका है। बसपा सरकार में मंत्री रहे बादशाह सिंह को विधायक निधि के दुरुपयोग के मामले में सजा हो चुकी है। पूर्व सांसद रमाकांत यादव भी सजा भुगत रहे हैं।पश्चिमी यूपी के माफिया डीपी यादव को भी सही सियासी ठिकाना नहीं मिल रहा है।
एनआरएचएम घोटाले में फंसने के बाद बाबू सिंह कुशवाहा और मुकेश श्रीवास्तव की भी सियासी पहचान धूमिल होती चली गई। बसपा सरकार में लोकायुक्त जांच में फंसे तत्कालीन मंत्री राजेश त्रिपाठी, अवध पाल सिंह यादव, रंगनाथ मिश्रा, रतन लाल अहिरवार, फतेह बहादुर सिंह, चंद्रदेव राम यादव, सदल प्रसाद, राकेश धर त्रिपाठी को भी बड़ा नुकसान उठाना पड़ा, जिससे सियासत में इन सबकी तरक्की पर गहरा प्रभाव पड़ा।
माफिया अतीक अहमद हर चुनाव में अपनी दावेदारी पेश करता था। उसका भाई माफिया अशरफ विधायक रहा था। अतीक की पत्नी शाइस्ता परवीन भी कई बार चुनाव मैदान में उतरने की कवायद कर चुकी है। उमेश पाल हत्याकांड के बाद अतीक और अशरफ की भी हत्या हो गई। अतीक और अशरफ की पत्नियां फरार हैं।अतीक के दोनों बेटे भी जेल में हैं। अतीक के पूरे कुनबे की अब सियासत में वापसी आसान नहीं है।
यूपी के कुछ बाहुबली ऐसे भी हैं, जिनकी सियासी गलियारों में पकड़ मजबूत हुई है। सालों तक फरार रहे माफिया बृजेश सिंह ने सरेंडर कर यूपी में वापसी की तो उनके परिवार के लिए सियासत के दरवाजे खुलते चले गए। बृजेश और उनकी पत्नी एमएलसी बने। अब बृजेश सिंह अपने बेटे को सियासत में एंट्री कराने के लिए प्रयास कर रहे हैं।
अयोध्या की गोसाईंगंज विधानसभा से विधायक अभय सिंह का तमाम दुश्वारियों के बावजूद सियासी सफर जारी है। राज्यसभा चुनाव में अभय सिंह ने भाजपा प्रत्याशी को वोट देकर अपना नया मुकाम तलाश लिया है। कई दलों की सवारी कर चुके सांसद बृजभूषण शरण सिंह को भले ही इस बार टिकट मिलने की उम्मीद कम है, लेकिन उनके सियासी दमखम को कम नहीं आंका जा सकता है।