चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने सांसदों-विधायकों की कौन सी पावर छीनी, 26 साल पुराने कौन से फैसले को दिया पलट

चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की अगुआई वाली सुप्रीम कोर्ट की 7 जजों की संविधान पीठ ने सोमवार (4 मार्च) को एक ऐतिहासिक फैसला दिया। उच्चतम न्यायालय ने झारखंड मुक्ति मोर्चा की विधायक सीता सोरेन घूस केस में अपना 26 साल पुराना फैसला पलट दिया। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि घूस लेकर भाषण देने या सदन में वोट देने के मामले में सांसदों और विधायकों के खिलाफ रिश्वतखोरी का मुकदमा चलाया जा सकता है। उन्हें अभियोजन से छूट प्राप्त नहीं होगी।

CJI चंद्रचूड़ ने क्या कहा…

चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ जस्टिस पीएस नरसिम्हा, जस्टिस जेबी पारदीवाला, जस्टिस संजय कुमार, जस्टिस मनोज मिश्रा और जस्टिस एएस बोपन्ना की पीठ ने बहुमत से फैसला सुनाते हुए कहा कि सांसदों और विधायकों के खिलाफ रिश्वत लेकर भाषण देने और सदन में वोट डालने के मामले में उनके खिलाफ मुकदमा चलाया जा सकेगा। सीजेआई चंद्रचूड़ ने कहा कि जनप्रतिनिधियों को इस तरह से छूट देना, लोकतंत्र के सामने एक गंभीर खतरा है।

MP-MLA को कैसे मिली थी छूट…

सांसदों-विधायकों को संविधान के आर्टिकल 194(2) के तहत इम्युनिटी मिली हुई थी। अनुच्छेद 194(2) में कहा गया है “किसी राज्य के विधानमंडल का कोई भी सदस्य विधानमंडल या उसकी किसी समिति में अपने द्वारा कही गई किसी बात या वोट के संबंध में किसी भी अदालत में किसी भी तरह की कार्यवाही के लिए उत्तरदायी नहीं होगा…” इसी तरह संविधान के अनुच्छेद 105(2) में संसद सदस्यों को भी ठीक इसी तरह की सुरक्षा मिली थी। सुप्रीम कोर्ट के एडवोकेट आदर्श तिवारी बताते हैं कि संविधान के अनुच्छेद 105(2) और 194(2) में सांसदों और विधायकों को विशेषाधिकार दिये गए हैं. सांसद या विधायक, सदन में कुछ भी कहें, या किसी विषय पर वोट दें, इन दोनों कंडीशन में उनके खिलाफ किसी अदालत में कोई मुकदमा नहीं चलाया जा सकता है। एडवोकेट तिवारी कहते हैं कि इन दो विषयों के अलावा, संविधान के अनुच्छेद 105(3) और 194(3) में कहा गया है कि सांसदों व विधायकों के अन्य विशेषाधिकार के मामले में राज्य विधानसभा या लोकसभा अथवा राज्यसभा समय-समय पर नियम में फेरबदल कर सकते हैं। जैसे सांसद अथवा विधायक को क्या सुविधा मिलेगी, कैसे प्रोटोकॉल आदि।

क्या है 26 साल पुराना नरसिम्हा राव का केस…

साल 1998 में पी.वी. नरसिम्हा राव बनाम राज्य (सीबीआई/एसपीई) केस में सुप्रीम कोर्ट में इस अनुच्छेद पर बहस हुई। तब उच्चतम न्यायालय की पांच जजों की बेंच ने इस अनुच्छेद की शाब्दिक व्याख्या की थी और माना कि विधायकों और सांसदों को विधानसभा या संसद में अपने भाषण और वोट से जुड़े मामलों में रिश्वत के लिए आपराधिक मुकदमा चलाने से छूट प्राप्त है. एडवोकेट आदर्श तिवारी कहते हैं कि 1998 के पीवी नरसिम्हा राव केस के जजमेंट में सुप्रीम कोर्ट ने माना था कि संविधान के 105(2) और 194(2) में सांसदों और विधायकों को इम्युनिटी मिली है और संविधान देश का शीर्ष दस्तावेज है इसलिये वह अक्षरश: सही है। उस फैसले की एक और महत्वपूर्ण बात है कि कोर्ट ने कहा था कि अगर आपने जिस काम के लिए (प्रश्न पूछने या वोट देने के लिए) रिश्वत ली और वो काम पूरा कर दिया तब कोई दिक्कत नहीं है। पर अगर उसके उलट किया तब दिक्कत है।

क्या है झारखंड मुक्ति मोर्चा वाला केस…

झारखंड मुक्ति मोर्चा (जेएमएम) की विधायक सीता सोरेन पर 2012 के राज्यसभा चुनाव के दौरान एक उम्मीदवार को वोट देने के बदले रिश्वत लेने का आरोप लगा था. 2014 में, झारखंड उच्च न्यायालय ने केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) द्वारा उनके खिलाफ दायर मामले को रद्द करने से इनकार कर दिया। जिसके बाद उसी साल उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय में अपील की. मार्च 2019 में मामले पर सुनवाई करते हुए तत्कालीन सीजेआई रंजन गोगोई, जस्टिस अब्दुल नजीर और जस्टिस संजीव खन्ना की पीठ ने कहा कि 1998 के पी.वी. नरसिम्हा राव केस में दिया गया सुप्रीम कोर्ट का फैसला, सीधे ऐसे मामलों से जुड़ा था. हालांकि, पीठ ने इस तथ्य पर भी गौर किया कि 1998 का फैसला बहुत ही कम अंतर (पांच न्यायाधीशों के बीच 3:2 के विभाजन) से हुआ था और कहा कि यह मुद्दा “पर्याप्त सार्वजनिक महत्व” का है, इसलिये बड़ी बेंच को भेजा जाना चाहिए. इसके बाद मामला बड़ी बेंच को रेफर कर दिया गया। सितंबर 2023 में, CJI चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली पांच जजों की बेंच ने इस केस के 3 अहम पहलुओं का जिक्र किया और कहा कि इनपर पुनर्विचार करने की आवश्यकता थी और मामले को सात-न्यायाधीशों की पीठ के पास भेज दिया।

वो मुद्दे निम्नलिखित थे…

1- पहली नजर में, पीठ ने पाया कि अनुच्छेद 194(2) और 105(2) का उद्देश्य विधायकों को प्रतिशोध के डर के बिना वोट डालने की अनुमति देना था, न कि उन्हें आपराधिक कानून के संभावित उल्लंघन से बचाना था।
2- दूसरा, पी.वी. नरसिम्हा राव केस में न्यायमूर्ति एस.सी. अग्रवाल की असहमति को ध्यान में रखा गया।
3- तीसरा- कोर्ट ने कहा कि यह तय करने की आवश्यकता है कि क्या रिश्वत का अपराध तभी माना जाएगा, जब रिश्वत का भुगतान हो जाएगा या जब घूस लेकर विधायक, उसके बदले फेवर कर ले।

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