यूपी में थे फायर ब्रांड नेता, सीएम पद के दावेदार, अब उम्मीदवारी के लिए संकट, बीजेपी हाईकमान से कैसे दूर होते गए वरुण गांधी

लखनऊ। उत्तर प्रदेश में कभी मुख्यमंत्री पद के दावेदार रहे वरुण गांधी के सितारे गर्दिश में दिख रहे हैं। पीलीभीत संसदीय सीट से लोक निर्माण विभाग के मंत्री जितिन प्रसाद को भाजपा ने अपना उम्मीदवार बनकर वरुण गांधी के टिकट पर सस्पेंस खत्म कर दिया। फिर भी यूपी के सियासी गलियारों में उनको लेकर दो तरह की खबरें चल रही है। इनमें पहली खबर यह कि अभी भी वरुण गांधी को बीजेपी से टिकट मिलेगी या नहीं, तो दूसरी खबर उनके चुनाव लड़ने पर है। यूपी में बीजेपी ने 51 उम्मीदवारों की घोषणा कर दी है, लेकिन लिस्ट में अब तक वरुण गांधी का नाम नहीं आया है। वरुण पीलीभीत से सांसद हैं।

बड़ा सवाल कि आखिर बीजेपी हाईकमान से वरुण गांधी की क्यों बढ़ी दूरी ?

साल-2014 में वरुण गांधी को उनके पिता संजय गांधी के सीट अमेठी से उन्हें चुनाव में उतारने की बात भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने की, जिस वरुण गांधी ने परिवार के सामने चुनाव लड़ने से साफ़ तौर पर मना कर दिया था। इस तरह अमेठी और रायबरेली दोनों सीटें पर तय हो गया कि वरुण गांधी चुनाव नहीं लड़ेंगे। वह राजनीति में महभारत के अर्जुन नहीं बनना चाहते। इसलिए भाजपा उन्हें अमेठी के बगल सुल्तानपुर संसदीय सीट दी और वह चुनाव भी जीत गए। माँ मेनका गांधी पीलीभीत से सांसद निर्वाचित हुई और केंद्र में एनडीए की सरकार बनी और नरेन्द्र मोदी पीएम बने। मोदी सरकर के प्रथम कार्यकाल में मेनका गांधी को भी मंत्री बनाया गया था, परन्तु वरुण गांधी साइड लाइन ही रहे।

फायर ब्रांड नेता वरुण गांधी को यह बात चुभती रही और वह समय-समय पर मोदी सरकार को आईना दिखाने की गुस्ताखी करते रहे। बात और अधिक खराब उस समय हुई, जब यूपी विधानसभा चुनाव- 2017 के पहले सुल्तानपुर में वरुण गांधी ने पोस्टर वार के जरिये स्वयं को सूबे का मुखिया के तौर पर अपनी प्रस्तुति कर डाली। ये बातें भाजपा शीर्ष नेतृत्व को रास नहीं आई और उसी समय से वरुण गांधी का पर कतरा जाने लगा। उत्तर प्रदेश के विधान सभा चुनाव-2017 में भाजपा ने पीएम के चेहरे पर चुनाव लड़ा और प्रचंड जनादेश मिला और बहुत मंथन के बाद सूबे में मुख्यमंत्री की कमान गोरखपुर पीठाधीश्वर एवं गोरखपुर के सांसद महंत योगी आदित्यनाथ जी को सौंप दी गई। तभी से वरुण गांधी का सूर्य अस्त होने लगा।

भाजपा शीर्ष नेतृत्व जब तक रायबरेली सीट पर किसी उम्मीदवार को नहीं उतारती तब तक वरुण गांधी पर संस्पेंस बना रहेगा कि वह इस बार चुनाव लड़ेंगे अथवा अपनी मां मेनका गांधी के कैंपेन तक ही स्वयं को रखेंगे सीमित 

कभी वरुण गांधी को भाजपा शीर्ष नेतृत्व स्टार प्रचारक बनकर अलग-अलग क्षेत्रों में प्रचार के लिए इस्तेमाल करती थी। वरुण गांधी की बात करें तो उन्हें कभी स्वयं के लिए टिकट मांगने की जरुरत नहीं पड़ी। साल- 2004 के बाद से यह पहली बार है, जब वरुण गांधी के टिकट को लेकर सस्पेंस बना हुआ है। साल- 2009 और साल- 2014 में वरुण गांधी के नाम की घोषणा बीजेपी ने चुनाव से बहुत पहले ही कर दी थी। साल- 2009 में मुख्य चुनाव आयुक्त नवीन चावला की सख्त टिप्पणी के बावजूद बीजेपी ने वरुण गांधी का टिकट नहीं काटा था। पार्टी ने उस वक्त वरुण के बचाव के लिए स्पेशल प्रेस कॉन्फ्रेंस किया था। हालांकि 15 साल बाद हालात पूरे तरह से बदले नजर आ रहे हैं। इस बार उन्हें अभी तक उम्मीदवार नहीं बनाया गया है।

लोकसभा चुनाव- 2024 से पहले रायबरेली से सोनिया गांधी ने ऐलान किया वह अब लोकसभा चुनाव नहीं लड़ेगी। इसलिए जब तक भाजपा रायबरेली सीट पर उम्मीदवार की घोषणा नहीं करती तब तक वरुण गांधी चुनाव लड़ेंगे अथवा नहीं, यह नहीं कहा जा सकता। चूँकि जब सामने परिवार का सदस्य चुनाव नहीं लड़ रहा होगा तो उस दशा में रायबरेली सीट से भाजपा वरुण गांधी को चुनावी मैदान में उतार कर कांग्रेस की बची एक सीट भी छीन लेने का प्लान बना सकती है। फिललहाल अभी तक भाजपा शीर्ष नेतृत्व अभी तक पीलीभीत के सांसद वरुण गांधी और उनकी मां मेनका गांधी को इस बार कैंपेन से भी दूर रखा गया हैं। दिलचस्प बात है कि दोनों मां-बेटे काफी दिनों से सोशल मीडिया पर भी सक्रिय नहीं हैं। वरुण और मेनका ने आखिर ट्वीट 26 फरवरी को किया था। इतना ही नहीं, बीजेपी के मैं भी ‘मोदी का परिवार’ कैंपेन को भी दोनों नेताओं ने अपने अकाउंट पर शेयर नहीं किया है। वरुण गांधी के एक्स अकाउंट पर 12 लाख तो मेनका गांधी के एक्स अकाउंट पर करीब 3 लाख फॉलोअर्स हैं।

भारतीय जनता पार्टी के भीतर जिस तरह से वरुण गांधी को लेकर खबरें चल रही हैं, उससे यह तय हो गया है कि पार्टी हाईकमान और उनके बीच में काफी दूरियां बढ़ गई है। ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर इसकी मूल वजह क्या है ? आईये इस स्पेशल स्टोरी में विस्तार से इसे समझने का प्रयास करते हैं…

 

  • साल- 2013 में आडवाणी के लिए रैली आयोजित करना, साल- 2012 में गुजरात चुनाव के बाद भारतीय जनता पार्टी अपना चेहरा बदलने में जुटी थी। पार्टी के भीतर नरेंद्र मोदी का वर्चस्व बढ़ता जा रहा था और कई बड़े नेता उनके नाम की पैरवी करने लगे थे। इसी बीच वरुण गांधी ने लालकृष्ण आडवाणी के लिए एक रैली का आयोजन करा दिया। मोदी के उभार के बीच आडवाणी की इस रैली को मीडिया ने शक्ति प्रदर्शन कहकर प्रचारित किया। कहा जाता है कि वरुण गांधी इसके बाद से ही संगठन के कोपभाजन का शिकार हो गए और नरेंद्र मोदी की गुड बुक से बाहर हो गए। साल- 2013 के गोवा अधिवेशन के बाद लालकृष्ण आडवाणी का दौर बीजेपी में औपचारिक रूप से खत्म हो गया। हालांकि, वरुण को सुल्तानपुर से और उनकी मां को पीलीभीत से सांसदी का टिकट जरूर मिला। सरकार बनने के बाद मेनका गांधी को मंत्री भी बनाया गया, लेकिन वरुण साइड लाइन कर दिए गए। मोदी सरकार के बाद बीजेपी के संगठन में भी बदलाव हुआ और इस बदलाव में वरुण गांधी से महासचिव की कुर्सी छीन ली गई।

 

  • इलाहाबाद अधिवेशन में लगवाए खुद के पोस्टर। साल- 2016 में यूपी चुनाव से पहले भारतीय जनता पार्टी ने ऐतिहासिक शहर इलाहाबाद में राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक बुलाई। यूपी में बैठक करने का मकसद संगठन को जोड़ना था। हालांकि, कार्यकारिणी की बैठक से पहले वरुण गांधी को लेकर लगे पोस्टर ने बीजेपी हाईकमान को सकते में ला दिया। कहा जाता है कि इस कार्यकारिणी में वरुण गांधी ने समर्थकों के जरिए शक्ति प्रदर्शन किया। पूरे शहर में वरुण के मुख्यमंत्री के दावेदारी वाले पोस्टर लगाए गए। पोस्टर वायरल होने के बाद तत्कालीन बीजेपी प्रदेश अध्यक्ष केशव प्रसाद मौर्य ने नेताओं को नोटिस जारी किया था। इतना ही नहीं, साल- 2017 के चुनाव में बीजेपी हाईकमान ने वरुण गांधी को स्टार प्रचारक भी नहीं बनाया। वरुण पूरे चुनाव से दूर रहे। दिलचस्प बात है कि वरुण गांधी के प्रचार न करने के बावजूद बीजेपी पीलीभीत और सुल्तानपुर में क्लीन स्विप करने में कामयाब रही।

 

  • किसान आंदोलन के वक्त मोदी सरकार के खिलाफ पोस्ट- दूसरी बार केंद्र की सत्ता में आने के बाद मोदी सरकार ने 3 कृषि कानून संसद से पास कराए, लेकिन किसानों ने कानून का विरोध करते हुए इसके खिलाफ मोर्चा खोल दिया। केंद्र सरकार इस कानून को सही ठहराने में जुट गई, लेकिन वरुण गांधी ने स्टैंड ले लिया। वरुण की वजह से कई मौकों पर सरकार को बैकफुट पर आना पड़ा। वरुण इस कानून के विरोध में सोशल मीडिया और अखबारों में लेख के जरिए पीएम मोदी पर जमकर निशाना साधा। इधर, किसान संगठनों ने भी सरकार के खिलाफ माहौल तैयार कर दिया। आखिर में यूपी विधानसभा चुनाव से पहले केंद्र सरकार ने इस तीनों कानून को वापस लेने का फैसला किया।

संजय गांधी के बेटे वरुण गांधी बीजेपी में कैसे आए थे ?

वरुण गांधी की राजनीतिक एंट्री भी काफी दिलचस्प है। बात साल- 2004 की है, जब इंडिया शाइनिंग के सहारे बीजेपी लगातार तीसरी बार सत्ता में काबिज होने के लिए चुनाव लड़ रही थी। वरुण की राजनीति में एंट्री को लेकर वरिष्ठ पत्रकार विजय त्रिवेदी अपनी पुस्तक में विस्तार से लिखा है। त्रिवेदी के मुताबिक वरुण को बीजेपी में लाने का श्रेय प्रमोद महाजन को जाता है। साल- 2004 के चुनाव में सोनिया गांधी की लोकप्रियता बढ़ रही थी। ऐसे में प्रमोद महाजन ने गांधी परिवार की काट खोजने के लिए मेनका-वरुण गांधी को बीजेपी में शामिल कराया। हालांकि मेनका गांधी वाजपेयी सरकार में भी मंत्री थीं, लेकिन वो उस समय बीजेपी में शामिल नही थीं। त्रिवेदी आगे कहते हैं कि राष्ट्रीय महासचिव प्रमोद महाजन ने जब अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी को वरुण-मेनका के बीजेपी में शामिल होने की जानकारी दी तो अटल-आडवाणी दोनों इस सूचना से चौंक गए।

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