समाजवाद की बदल गई परिभाषा
मुलायम ने बदल डाली समाजवाद की परिभाषा
राजनीति में सभी वर्ग की भागीदारी सुनिश्चित की जानी चाहिए। जय प्रकाश नारायण और राममनोहर लोहिया इस बात के प्रबल समर्थक थे और उन्होंने इस सामाजिक परिवर्तन के लिए कई आंदोलन भी किये, जिसे जेपी का या लोहिया का समाजवाद कहा जाता है। उन्होंने ऐसे लोगो को समाज की मुख्यधारा से जोड़ा और उनको मजबूत करने के साथ ही उनमें एक नया जोश पैदा किया कि तुम भी देश और समाज का नेतृत्व कर सकते हो, उसी का परिणाम रहा कि उनके जाने के बाद उनके रास्ते पे चलकर कुछ लोग आगे चलकर देश और राज्य का नेतृत्व किया और अब भी कर रहे है। लोहिया और जेपी में थोड़ा बैचारिक मतभेद के बाद जो बिहार के लोगो ने जेपी का अनुसरण किया और उत्तर प्रदेश ने लोहिया के समाजवाद को अपनाया। बिहार में लालू यादव, नीतीश, शारद यादव, रविशंकर प्रसाद सुशील मोदी आदि ऐसे कई नेताओं की कतार है। वहीं उत्तर प्रदेश में चंद्रशेखर, जनेश्वर मिश्र और मुलायम सिंह यादव एवं अन्य नेता रहे।
चन्द्रशेखर और जनेश्वर मिश्र के जाने के बाद मुलायम सिंह यादव समाजवाद के इकलौते झंडाबरदार अपने को घोषित कर लिया। सवाल यह कि क्या मुलायम सिंह यादव ने जिस समाजवाद को आगे बढाया वास्तव में क्या उसी की कल्पना लोहिया जी ने की थी ? एक तरफ जहां लोहिया सामाजिक बराबरी और समाज के सभी वर्गों की भागीदारी सुनिश्चित करते थे, वहीं मुलायम सिंह का जो समाजवाद था, वो परिवार और एक खास वर्ग तक सिमट कर रहा गया और हालात यहाँ तक पहुँच गए कि भाई, चाचा, बेटा, भतीजा बहू को सत्ता के पदों पर आसीन कर दिया। यही नहीं सरकारी नौकरियों में एक खास वर्ग की भर्ती करके संविधान की सभी मान्यताओं को ध्वस्त करने के साथ लोहिया के समाजवाद को भी पैरो तले रौंद डाला। ये सबकुछ सही चलता, लेकिन अचानक हुए राजनीति परिवर्तन ने इस समाजवादी कुनबे में एक चिंगारी को जन्म दे दिया। वर्ष-2012 में सत्ता परिवर्तन के बाद जैसे ही मुलायम ने अपने पुत्र अखिलेश को सत्ता सौपी, बस वहीं से इस पारिवारिक समाजवाद में एक अनकहे तूफान ने दस्तक दे दी थी।
ये सत्ता परिवर्तन लोहिया के समाजवाद को अंगूठा दिखा रहा था और ये सत्ता मुलायम सिंह यादव ने अपने बड़े पुत्र अखिलेश यादव को ठीक उसी तरह उत्तराधिकारी के तौर पर सौंपी, जैसे वो लोकतंत्र नहीं वरन राजतंत्र में एक राजा अपने युवराज को सौपता है। बस फिर क्या था, इस कुनबे में जो लोग थे वो इस बात को पचा नहीं पा रहे थे और वो भौचक्के रह गए थे कि ये क्या हो गया ? अचानक हुए इस परिवर्तन से सत्ता का केंद्र बदल गया। लोग जहां हर बात के लिए मुलायम सिंह यादव के पास जाते थे, अब उन सबको अखिलेश यादव के सामने नतमस्तक होने के लिए विवश होना था। चूंकि मुलायम सिंह यादव जो परिवार के सबसे बड़े थे और पार्टी के भी तो उनको वहाँ अपनी बात रखने और सर झुकाने में दिक्कत नहीं होती थी। लेकिन अखिलेश यादव के आने के बाद सब कुछ बदल गया। शुरू में तो मुलायम सिंह यादव ने सबको समझाया कि कुछ नहीं होगा। अखिलेश यादव नाम का है, सारा कुछ मैं ही देखूंगा। लेकिन समय बीतने के साथ ही सब बदलता गया।
हालात यहाँ तक आ गए अब परिवार में बगावती सुर खुलकर सुनाई देने लगा। नतीजा ये हुआ कि परिवार दो खेमो में बंट गया। एक खेमा अखिलेश यादव के समर्थन में था, तो दूसरा उनके विरोध में, जिसका नेतृत्व चाचा शिवपाल यादव का रहे थे। मामला यही नहीं रुका। सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष पद से मुलायम सिंह यादव को बर्खास्त कर अखिलेश यादव ने अपने दूसरे चचेरे चाचा प्रो. रामगोपाल यादव की मदद से पूरी तरह से पार्टी पर कब्जा कर लिया। सरकार तो किसी तरह 5 साल चल गई, लेकिन वर्ष-2014 लोकसभा में चुनावी हार के बाद वर्ष- 2017 में हुए विधानसभा के आम चुनाव में भी समाजवादी पार्टी की करारी हार हुई। इस हार के बाद इस कुनबे में अंदर जो आग सुलग रही थी, उसकी लौ तेज होती जा रही थी। क्योंकि अखिलेश यादव ने पार्टी में तो अपनी पकड़ बना ली, लेकिन परिवार में उनकी इज्जत खत्म हो गयी और एक-एक कर लोग उनसे दूरिया बनाते चले गए। रही सही कसर वर्ष-2019 के लोकसभा चुनावों ने कर दी, जहां परिवार के सभी लोग चुनाव हार गए। अखिलेश यादव तो किसी तरह जीत गए, लेकिन उनकी पत्नी डिंपल, धर्मेंद्र, प्रतीक सभी चुनाव हार गए।
सत्ता की हनक में मस्त ये परिवार से अधिकांश लोग जो लाल बत्ती के शौकीन थे और जो उनके ठाठ बाट थे, उनसे वो महरूम हो गए। चाचा शिवपाल यादव ने तो समाजवादी पार्टी के विधायक रहते वर्ष-2019 में नई राजनीतिक पार्टी तक बना ली और वह नियम विरुद्ध उसके स्वयंभू राष्ट्रीय अध्यक्ष तक बन बैठे और लोकसभा का चुनाव भी उसी राजनीतिक दल के बैनर तले लड़ लिए। उन्हें और उनकी पार्टी को कोई लाभ नहीं मिला, परन्तु भतीजे अखिलेश यादव को पटखनी देने के लिए संजीवनी का कार्य किया। हालाँकि अखिलेश यादव मन में भले ही इस बात की टीस लिए घूम रहे हों, परन्तु उन्होंने कभी सार्वजनिक मंच से इसे जाहिर नहीं होने दिया। बल्कि शिवपाल यादव को समझ में आ गया था कि वह अलग पार्टी बनाकर समाजवादी पार्टी का नुकसान तो कर सकते हैं, परन्तु उन्हें भी कुछ हासिल होने वाला नहीं है। इसके लिए शिवपाल यादव समाजवादी पार्टी से सीटों का समझौता कर विधानसभा चुनाव में उतरना चाहते थे और उसके लिए लगातार प्रयास भी करते रहे। अन्तोगत्वा अखिलेश यादव ने चाचा शिवपाल यादव से गठबंधन के लिए हामी भर ली है, परन्तु अभी तक यह तय नहीं हो सका है कि विधानसभा चुनाव में चाचा शिवपाल यादव को कितनी सीटें मिलेगी ? वर्तमान में हो रहे विधानसभा चुनाव में अखिलेश यादव से शिवपाल यादव समझौता तो कर लिया, पर कई और लोग थे जो वहाँ घुटन महसूस कर रहे थे। उसी क्रम में उनके छोटे भाई प्रतीक यादव की पत्नी अपर्णा यादव ने समाजवादी पार्टी छोड़ उनकी धुर विरोधी पार्टी भारतीय जनता पार्टी को जॉइन कर लिया है। देखना है अब इस समाजवादी कुनबे का क्या होता है ? विधान सभा चुनाव के बाद अगर हार हुई जैसा सभी ओपिनियन पोल्स बात रहे तो फिर ये परिवार की लड़ाई और बढ़ना तय है।