जहां भगवति राधा होंगी, वहां कान्हा खुद ही चले आएंगे, इसलिए यदि आप श्रीकृष्ण की कृपा चाहते हैं तो श्री राधा की भक्ति अवश्य करें
राधा रानी ने जन्म लियो हैं, सब सुखदानी ने जन्म लियो हैं॥
भानु दुलारी ने जन्म लियो हैं, कीर्ति कुमारी ने जन्म लियो हैं॥
श्रीराधाष्टमी एक विशेष दिन है, क्योंकि राधारानी कृष्ण की आह्लाद शक्ति या हल्दिनी शक्ति हैं। श्रीकृष्ण एक हैं, लेकिन राधा और कृष्ण के रूप में दो हो गए। इसलिए श्रीराधारानी साधारण स्त्री नहीं हैं, वह भगवान की आह्लादिनी शक्ति है। यदि आप श्रीराधारानी को प्रसन्न कर सकते हैं तो फिर वह कृष्ण से कहती है कि यह भक्त बहुत अच्छा है, तब श्रीकृष्ण अपनी कृपा देने में बहुत प्रसन्न होते हैं।
कहते हैं कि कृष्ण की कृपा चाहते हो तो राधा जी की भक्ति जरूर करना चाहिए। जहां भगवति राधा होंगी, वहां कान्हा खुद ही चले आएंगे। शास्त्रों में श्रीराधारानी को माता लक्ष्मी का स्वरूप बताया गया है। जैसे श्रीराधा के बिना श्याम अधूरे हैं, वैसे ही श्रीराधा की पूजा के बिना श्रीकृष्ण की पूजा पूर्ण नहीं मानी जाती। शास्त्रों में राधा कृपा कटाक्ष स्तोत्र का पाठ बहुत शक्तिशाली बताया गया है। राधा अष्टमी के दिन उनके स्त्रोत का पाठ करने से सांसारिक इच्छाओं की पूर्ति होती है। अष्टमी, दशमी, एकादशी त्रयोदशी और पूर्णिमा तिथि पर उनके स्तोत्र को पढ़ना बेहद लाभकारी माना गया है।
भाद्रपदमास के कृष्णपक्ष की अष्टमी श्रीकृष्णजन्माष्टमी और भाद्रपदमास के शुक्लपक्ष की अष्टमी ‘श्रीराधाष्टमी’ के नाम से जानी जाती है। श्रीराधा का ननिहाल ब्रज के रावल-ग्राम में था। रक्षाबंधन के पर्व पर श्रीराधा की गर्भवती मां कीर्तिदा रानी अपने भाई को राखी बांधने आईं। राधाष्टमी के एक दिन पहले बरसाने के राजा श्री वृषभानजी महाराज अपनी पत्नी को वापस ले जाने को आए। प्रात: यमुनास्नान करते समय भगवान की लीला से कीर्तिदा रानी के गर्भ का तेज निकलकर यमुना किनारे बढ़ने लगा और यमुनाजी के जल में नवविकसित कमल के केसर के मध्य एक परम सुन्दरी बालिका में परिणत हो गया।
बरसाने के राजा श्री वृषभानुजी उस बालिका को अपने साथ ले आए और अपनी पत्नी को लेकर बरसाना आ गए। बरसाने में खबर फैल गई कि कीर्तिदा ने एक सुन्दर बालिका को जन्म दिया है। बरसाने के राजा श्री वृषभानु भवन में वेदपाठ आरम्भ हो गया। राजद्वार पर मंगल-कलश सजाए गए। शहनाई, नौबत, भेरी, नगाड़े बजने लगे। श्रीराधा के जन्म का समाचार सुनकर व्रजवासी, जामा, पीताम्बरी, पटका पहनकर सिरपर दूध, दही और माखन से भरी मटकियाँ लेकर गाते-बजाते वृषभानु भवन पहुँच गए और राजा वृषभानु को बधाइयाँ देने लगे। तान भर-भर कर सोहिले गायी जाने लगीं। राजा वृषभानु के ऊंचे पर्वत पर बने महल के जगमोहन में श्रीराधा के पालने के दर्शन हो रहे थे। आँगन में बैठे गोप और बारहद्वारी में बैठी महिलाएँ सुरीले गीत गा रही थीं।
राजा वृषभानु ने श्रीराधा के झूलने के लिए चंदन की लकड़ी का पालना बनवाया जिसमें सोने-चांदी के पत्र और जवाहरात लगे थे। पालने में श्रीजी के झूलने के स्थान को नीलमणि से बने मोरों की बेलों से सजाया गया था। नवजात बालिका श्रीराधा का जन्म मूल नक्षत्र में हुआ अत: मूलशान्ति के लिए दिव्य औषधियों, वन की औषधियों, सर्वोषधि आदि से स्नान कराकर, गाय के दूध, दही, घी, इत्र व सुगन्धित जल से अभिषेक किया गया और फिर सुन्दर श्रृंगार धारण कराकर दुग्धपान कराया गया। गोपियाँ दही बरसा रही हैं और गोप दही-दूध-घी, नवनीत, हरिद्राचूर्ण, केसर तथा बत्र-फुलेल का घोल (दथिकांदा) बनाकर व्रजवासियों के ऊपर उड़ेल रहे हैं। प्रेममग्न व्रजवासियों के हृदय में जो राधा रस भरा था, वह मूर्तिमान होकर आजतक सबके मुख से निकल रहा है।