वर्तमान राजनीति ने बदल दिए मायने, धनबल, बाहुबल और जातीय समीकरण में फिट बैठना टेढ़ी खीर
ईमानदार और सचरित्रवान ब्यक्ति आधुनिकता की अंधी दौर में नहीं कर सकता राजनीति, हरफनमौला किस्म का ब्यक्ति ही आधुनिक राजनीति में बैठ सकता है,फिट…
राजनीति चाहे जो करा दे, वह कम है। क्योंकि इसी राजनीति से ही ब्यक्ति सत्ता की कुर्सी पर पहुँचता है और अपनी हनक और रसूख को बनाने के लिए वह इसी राजनीति की वैशाखी के सहारे जीवन के हर वैभव को प्राप्त करके स्वयं को सर्वोपरि ब्यक्ति मान बैठता है और स्वयंभू जनता का शासक बन जाता है, जबकि असल में वह जनता का सेवक और जनप्रतिनिधि ही रहता है, परन्तु सत्ता की कुर्सी मिलते ही उसे सत्ता का ऐसा नशा चढ़ता है कि वह अपनी पुरानी बातें और गुजरा हुआ दिन भूल जाता है। इसी सत्ता सुख के लिए आज हर कोई हैरान व परेशान है। पहले वह धन कमाता है और धन कमाते ही राजनीति की वैशाखी से सत्ता की कुर्सी को प्राप्त करना चाहता है। वर्तमान राजनीति का यही एक गुणसूत्र है, जिसे हर कोई अपनाना चाहता है। जिस पार्टी की हवा ठीक हो उस पार्टी से टिकट लेने वाले टिकटार्थी उस दल में इतनी तेजी से लाइन लगाते हैं कि देखते ही देखते उम्मीदवारों की संख्या दर्जन भर से अधिक हो जाती है। राजनीतिक दलों के मुखिया के लिए भी बहुत मुश्किल भरा दिन हो जाता है। उसकी पहली प्राथमिकता होती है कि जिसे वह टिकट दे वह जिताऊ उम्मीदवार हो साथ ही पार्टी फंड की ब्यवस्था अधिक से अधिक करने की क्षमतावान भी हो !
उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में खासकर भाजपा और सपा में उम्मीदवार की उमड़ी भीड़ ने पार्टी के बनाये गए सारे वसूल की धज्जियाँ उड़ाकर रख दिया। उम्मीदवारों के दिए गए टिकट की बात करें तो उसमें सबसे अधिक दल बदल के माहिर खिलाड़ियों ने टिकट प्राप्त करने में सफल अर्जित किये। उसके बाद धनपशुओं ने बाजी मारी। टिकट प्राप्त करने में पार्टी फंड और शीर्ष नेताओं की चाकरी से लेकर परिक्रमा लगाने में इतना समय लगा कि नामांकन के अंतिम क्षण तक टिकट की खरीद फरोख्त होती रही। एक बार टिकट फाइनल करने के बाद दूसरा मोटा आसामी मिल गया तो पहले वाले उम्मीदवार का टिकट काटने में न तो कोई संकोच और न ही पहले उम्मीदवार के स्थान पर दूसरे उमीदवार को देने से चुनाव में नुकसान का डर ही लगा हो। राजनीति के क्षेत्र में जमकर नंगा नाच होता रहा और जनता उसे निहारती रही। राजनीतिक पार्टियों के नंगा नाच देखने के बाद अब जनता भी जातीय आकड़े से कंफ्युजन में है कि वह क्या करे ? उसे कोई उपाय सूझ नहीं रहा। राजनीतिक दलों के पास चुनाव के लिए कोई मुद्दे बचे ही नहीं, सिवाय जाति और मजहब के सिवा राजनीतिक दलों के स्टार प्रचारकों को भी कुछ सूझ नहीं रहा।