
राजनीति के इतिहास में गांधी परिवार में उस समय भूचाल आया जब 14 दिस्मबर. 1946 को जन्मे संजय गांधी की मौत महज 34 साल में एक एयरक्राफ्ट दुर्घटना में हो गई। इस संदिग्ध मौत से आजतक असली रहस्य की गांठ न खुल सकी। देश के पीएम के बेटे की मौत सहस्यमयी रह जाए तो सवाल उठेगा और जवाब भी अपने-अपने ढंग से तलाशा जायेगा। आखिर बेटे की संदिग्ध की मौत की सूई स्वयं मां इंदिरा गांधी की तरफ आजतक क्यों घूमती रही ? जवान बेटे की मौत के बाद घर से संजय गांधी की पत्नी मेनका गांधी को इंदिरा गांधी ने दुधमुहे बेटे के साथ क्यों निकाल दिया था ? ऐसे बहुत सारे सवाल संजय गांधी की मौत को रहस्यमयी बनाते हैं।
आज से 45 साल पहले की बात है। ये दिन था, 23 जून 1980, सुबह का वक्त, प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के घर से एक गाड़ी बाहर निकली। उनके छोटे बेटे संजय गांधी हरे रंग की मेटाडोर चला रहे थे। संजय गांधी अमेठी से सांसद और एक महीने पहले ही कांग्रेस के महासचिव बने थे। मगर संजय को अपनी सत्ता और शक्ति के लिए इन पदों की दरकार नहीं थी। सब जानते थे कि पिछले पांच बरस से वही कांग्रेस के सर्वेसर्वा थे। बहरहाल संजय घर से निकले जल्दी में मां को बाय-बाय भी नहीं बोल पाये। 3 महीने, 10 दिन का बेटा वरुण सो रहा था। पत्नी मेनका उसे संभालने में लगी थी।

संजय गांधी एक किलोमीटर दूर सफदरजंग एयरपोर्ट पहुँचे। दिल्ली फ्लाइंग क्लब के चीफ इन्स्ट्रक्टर सुभाष सक्सेना यहां उनका इंतजार कर रहे थे और लाल रंग की शोख चिड़िया जैसा एक नया एयरक्राफ्ट, पिट्स एस 2 A हल्का इंजन कलाबाजी के लिए मुफीद था। बस एक चीज मुफीद नहीं थी, वह था संजय गांधी का रवैया। सियासत की तरह फ्लाइंग में भी वह दुस्साहस की हद तक लापरवाह और जोखिम लेने वाले थे। अक्सर वो सुरक्षा नियमों को तोड़ते थे। कहने वाले तो ये भी कहते हैं कि जूतों के बजाय कोल्हापुरी चप्पलों में ही प्लेन उड़ाने लग जाते थे।
संजय गांधी की मां इंदिरा को तमाम ब्यूरोक्रेट्स और नेताओं ने इस बारे में बताया था। मगर बात संजय की थी, जिसकी जिद के आगे पहले भी एक बार बेबस मां ने पूरे देश को रेहन रख दिया था। यहां तो सिर्फ कुछ नियमों भर की बात थी। मगर नहीं, बात दो जिंदगियों की थी, जो सुबह 7.15 बजे उड़ान भर चुकी थीं। कुछ ही मिनटों में वह अशोका होटल के ऊपर गोल-गोल नाच रहे थे। एयरक्राफ्ट अपने नाम के मुताबिक काम कर रहा था, लेकिन 10 मिनट बीतने के बाद संजय गांधी इसे खतरनाक तरीके से काफी नीचे लाकर नदी में गोते लगाने सरीखे एयरक्राफ्ट को भी हवा में पतंग की तरह उड़ाने लगे।

कुछ ही देर में एयरक्राफ्ट से नियंत्रण खत्म हो गया और फिर घर्र-घर्र की आवाज करता हुआ डिप्लोमैटिक एनक्लेव में संजय गांधी के घर से कुछ ही मिनटों की एरियल दूरी पर पिट्स क्रैश कर गया। दुर्घटना स्थल पर एंबुलैंस पहुंचे। डालियां काटी गईं। प्लेन के मलबे के बीच से संजय गांधी और सुभाष सक्सेना की लाश निकाली गई। ब्रेन हैमरेज के चलते दोनों की मौके पर ही मौत हो गई थी। उन्हें वहीं स्ट्रैचर पर लाल कंबल से ढंक कर रख दिया गया। कुछ ही मिनटों में वहां पर प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी पहुंचीं।
पीएम इंदिरा गांधी अपने सचिव आरके धवन के साथ कार से उतरते ही दौड़ने लगीं। फिर कुछ संभलीं, मगर बेटे की शक्ल देखने के बाद फूट-फूट कर रोने लगीं। इंदिरा को संभालने वाला कोई न था। उनकी ताकत छोटा बेटा और राजनीतिक उत्तराधिकारी संजय एक लाश बन चुका था। संजय की बीवी मेनका घर पर थी। बड़ा बेटा राजीव, बहू सोनिया और उनके बच्चे राहुल और प्रियंका इटली में छुट्टियां मना रहे थे। पूरा देश सकते में था। सब अपने-अपने ढंग से संजय गांधी को याद कर रहे थे। पर्दे के पीछे कोई हिटलर था तो वह संजय ही था।

संजय गांधी की मौत भी उनकी जिंदगी की तरह थी। अचानक क्रूर सबको चौंकाने वाली और उनका जनाजा उनके राजनीतिक कद की गवाही दे रहा था। देश के हर राज्य का मुख्यमंत्री चिता के 200 मीटर के दायरे में मौजूद था। दिल्ली में मौजूद हर देश का प्रतिनिधि कतार लगा कर खड़ा था। रेडियो पर प्रोटोकॉल तोड़ते हुए शोक धुन बज रही थी। अगले रोज यानी 24 जून को मद्रास में पूर्व राष्ट्रपति वीवी गिरि का भी निधन हुआ था। मगर उस तरफ किसका ध्यान होता ? सच कहे तो देशवासी अभी तक संजय गांधी के मरने की गुत्थी को समझ न सके।
विरोधी दलों के लिए वह इमरजेंसी का खलनायक था। जिसकी पहली जिद थी, जनता कार बनाना। मारूति के नाम से और इस सपने के लिए मां इंदिरा ने बैकों की तिजोरियां खुलवा दीं थी। सरकार की हर मुमकिन मदद दी। कार फिर भी नहीं बनी। मगर बेटा तब तक सरकारें बनाने बिगाड़ने में लग गया था। इमरजेंसी के दौरान उसने कभी सेंसरशिप की आड़ में पत्रकारों को धमकाया तो कभी पूरी की पूरी फिल्म की रील ही जलवा दी। तुर्कमान गेट पर मलिन बस्ती हटाने के लिए गोलियां चलीं। नसबंदी कार्यक्रम के लिए जबरदस्ती की गई।
मगर पब्लिक जबर थी। मसट्ट मारे बैठी रही और जब बारी आई तो ऐसा पलटवार किया कि मां इंदिरा गांधी रायबरेली से और बेटा संजय गांधी अमेठी से बुरी तरह चुनाव हार गए। इसके बाद शुरू हुआ ट्रायल का दौर। संजय गांधी पर एक के बाद एक मुकदमे लदने लगे। उनका तमाम वक्त पेशी में बीतता। मगर इसे भी संजय ने शक्ति प्रदर्शन का जरिया बना लिया। अदालतों में उनके बाहुबली युवा समर्थकों का हूजूम जुटता। ऐसा लगता गोया कोर्ट रूम नहीं, संजय का दरबार सज रहा हो।

एक रोज 11 महीने की सुनवाई के बाद दिल्ली की तीस हजारी कोर्ट के जज वोहरा ने उन्हें किस्सा कुर्सी के मामले में एक महीने की सजा सुना दी और इसके बाद जमानत भी नहीं दी। संजय गांधी, जो एक साल पहले तक देश के हर खड़कते पत्ते को इजाजत देता था, दिल्ली की जेल में था। कुछ रोज बाद उन्हें ऊपरी कोर्ट से जमानत मिली। समय बदला, लोग बदले, सत्ता बदली और संजय भी बदले। साल- 1980 के चुनाव में उन्होंने मम्मी को वापस पीएम बनाने के लिए सब पत्ते सही फेंके। युवाओं को जमकर टिकट बांटे गए। जनता, सत्तारूढ़ जनता पार्टी के बंटरबांट से तंग थी।
कांग्रेस केंद्र में वापस लौटी और लौटा संजय का रसूख। वह अमेठी से पहला और आख़िरी चुनाव भी जीते। जल्द ही उन्होंने मम्मी को एक काम के लिए राजी कर लिया। काम था, 9 ऐसे राज्यों में जहां कांग्रेस सत्ता में नहीं थी, उन विधानसभाओं को भंग करना। कहा गया कि देश ने नया जनादेश दिया है। इन्हें भी नए सिरे से इसे मानना होगा। चुनाव हुए तो 8 राज्यों में कांग्रेस सत्ता में वापस लौटी। इसका श्रेय भी संजय गांधी को दिया गया। उन्होंने सभी जगह अपने लोगों को सीएम की कुर्सी पर बैठाया।

संजय गांधी के राज्यारोहण की तैयारी शुरू हो चुकी थी। वह अपना राजनीतिक कौशल जाहिर कर चुके थे। ये तय था कि अब कांग्रेस में वही होगा, जो संजय चाहेंगे। इसलिए तमाम बूढ़े पुराने नेता भी घुटने मोड़कर दंडवत करने लगे थे। मुख्यमंत्रियों को तो अपनी ऑक्सीजन ही यहीं से मिलती थी। परन्तु ईश्वर के यहाँ घमंड का कोई स्थान नहीं है। संजय गांधी को भी अभिमान सिर चढ़कर बोलने लगा था। शायद तभी संजय गांधी ऐसी हरकत करने लगे और कुछ ही दिनों में वह चल बसे। राजनीतिक लोगों के समीकऱण हिल गए। कोई सोचा भी न था कि गांधी परिवार में अचानक ऐसी आंधी आयेगी और वह एक ही झटके में तवाही मचाकर चली जायेगी।
राजनीतिक के चतुर खिलाड़ियों को जल्द ही समझ आ गया कि संजय गांधी के बाद आज नहीं तो कल इंदिरा गांधी का राजनीतिक उत्तराधिकारी राजीव गांधी ही होंगे, क्योंकि राजनीति में एक वक्त के बाद शासन सत्ता की बागडोर दूसरे के हाथ में चली जाती है। बेटे की मौत के बाद इंदिरा गांधी अपनी बहू मेनका गांधी और उनके बेटे वरुण गांधी को घर से निकाल दिया और मेनका गांधी अपने छोटे से बेटे के साथ बेघर हो गई थी। अभी सत्ता की बागडोर इंदिरा गांधी के हाथ में ही थी। पीएम पद पर रहते हुए 31 अक्टूबर, 1984 को इंदिरा गांधी की हत्या उन्हीं के घर के अंदर उनके सिख अंगरक्षकों द्वारा कर दी जाती है।

इंदिरा गांधी की हत्या के बाद गांधी परिवार में राजनीतिक उत्तराधिकार को लेकर जंग छिड़ गई। छोटे बेटे की मौत के बाद राजनीतिक उत्तराधिकारी के रूप में बड़ा बेटा राजीव गांधी नौकरी छोड़कर राजनीति के अखाड़े में उतरे, परन्तु राजनैतिक महत्वाकांक्षा संजय गांधी की पत्नी मेनका गांधी में रहा और वह भी राजनीति के कुरूक्षेत्र में उतर कर संखनाद कर दिया। गांधी परिवार से कुछ लोग संजय गांधी की पत्नी मेनका गांधी संग हो लिए। बाक़ी ज्यदातर लोग राजीव गांधी के साथ में बने रहे। जिसकी जो राजनैतिक समझ रही, उसने वैसा निर्णय लिया।
देखते ही देखते गांधी परिवार में दो फाड़ हो गया और मेनका गांधी ने संजय विचार मंच नाम से नई पार्टी बनाई। अलग चुनाव लड़ा। साल- 1984 में अमेठी से राजीव गांधी को चुनौती देने पहुंचीं और चुनाव में बुरी तरह शिकस्त भी खाई। मगर जनता दल के उदय के साथ उनकी किस्मत भी चमकी। बाद में वह बीजेपी में आ गईं और बेटा वरुण भी कमल सहारे खिलने की कोशिशों में लगा रहा। फ़िलहाल स्वभावता वरुण का भाजपा से मतभेद हुआ और इस बार उन्हें पार्टी ने टिकट न देकर पैदल कर दिया और मां मेनका भी इस बार सुल्तानपुर से चुनाव हार गई।